प्राचीन काल में पूरा विश्व वैदिक परंपरा का पालन करता था। विभिन्न देशों के नाम, उनका इतिहास तथा उनकी रीति-रिवाज और परंपराओं का अध्ययन करना अत्यंत ज्ञानवर्धक और रोचक है। रूसी भाषाविद् श्री लेव सिलेंको ने भारत का दौरा किया। भाषाविज्ञान, इतिहास, रीति-रिवाज और परंपराओं पर उनके अध्ययन का सार यह है कि रूस और यूरोप में वैदिक परंपराएँ प्रचलित थीं। आज भी लगभग 50% शब्दों की व्युत्पत्तिगत जड़ें संस्कृत में हैं। कुछ शब्द मूल संस्कृत शब्द के भिन्न-भिन्न रूप हैं। श्री लेव सिलेंको ने विश्वभर में वैदिक जीवनशैली के अध्ययन और प्रचार के लिए कुछ शाखाएँ भी स्थापित की हैं।
अफ़ग़ानिस्तान के विद्वानों का कहना है कि रामायण की घटनाएँ उनके देश में घटित हुई थीं, क्योंकि अयोध्या, शरयू तथा रामायण में उल्लिखित कई देश उनके यहाँ भी स्थित हैं। इंडोनेशिया (हिंदोनेशिया), यद्यपि एक मुस्लिम देश है, फिर भी अपने देश को ‘रामायण कंट्री’ कहने में गर्व महसूस करता है। सीलोन, मलाया, सिंगापुर, बर्मा—लगभग सभी प्राच्य देश भी ऐसा ही विश्वास रखते हैं। इराक में हुए उत्खननों में, यद्यपि वह एक मुस्लिम देश है, स्वस्तिक चिह्न वाला एक पत्थर तथा हिंदू शैली की साड़ी पहने एक इराकी महिला का चित्र/प्रतिमा प्राप्त हुई है। ये अवशेष लगभग 3000 ईसा पूर्व के माने जाते हैं। स्वस्तिक का प्रतीक और हिंदू शैली की साड़ी इस बात का प्रमाण हैं कि लगभग 5000 वर्ष पहले इराक में वैदिक परंपरा प्रचलित थी।
रूस वास्तव में ‘ऋष्य’ है, जो ‘ऋषेय’ शब्द से व्युत्पन्न है। आज भी रूसी लोग अपने नामों के साथ ‘ओव’ (एक संस्कृत सम्बोधनात्मक विशेषण) जोड़ते हैं। जैसे—चोव, मोलोटोव, गार्बाचोव आदि। रूस के दक्षिण में स्थित मंगोलिया में अनेक संस्कृत ग्रंथ पाए गए हैं। पूर्व दिशा में जापान और कोरिया हैं, जो बौद्ध अर्थात वैदिक परंपराओं का पालन करते हैं। ‘कोरिया’ शब्द की जड़ें संस्कृत शब्द ‘कुर्यात’ में हैं। ‘मंगोलिया’ शब्द ‘मंगलमय’ से निकला है। ‘निप्पन’ मूल शब्द है, जिससे ‘जापान’ बना है। चीन या ‘चीन’ संस्कृत शब्द ‘प्राचीन’ से व्युत्पन्न है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि चीन में भी वैदिक परंपरा स्थापित थी। दूर दक्षिण में ऑस्ट्रेलिया—जिसका नाम ‘असुरालय’ से निकला है—में आज भी बर्बर माओरी जनजातियाँ निवास करती हैं। वसंत ऋतु में स्वस्तिक का चिह्न वैदिक परंपरा के अवशेषों को दर्शाता है।
अफ्रीका महाद्वीप को पहले बर्बर और पिछड़ा माना जाता था, लेकिन उत्तर अफ्रीका के कई देशों के नाम संस्कृत से व्युत्पन्न बताए जाते हैं। जैसे—इजिप्ट : अगुप्त, सहारा : आश्रय, नुब्बा : नव। सहारा लगभग 2500 वर्ष पहले एक घना वन क्षेत्र था, जहाँ हजारों प्रजातियाँ और मानव निवास करते थे। दुर्भाग्यवश, आज सहारा एक मरुस्थल बन चुका है। वैदिक परंपरा मूर्ति-पूजा में विश्वास नहीं करती, बल्कि निराकार ईश्वर में आस्था रखती है।
इस प्रकार, पूरा विश्व आर्य, द्रविड़ और वैदिक रहा है, लेकिन लोगों ने यह तथ्य भुला दिया है। प्रत्येक मानव, अपने धर्म, संप्रदाय या पंथ की परवाह किए बिना, सबसे पहले वैदिक ही है।
सामान्यतः जब हम योग के बारे में सोचते हैं, तो हमारे मन में आसनों का विचार आता है। लेकिन योग आठ अंगों से मिलकर बना है—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि। इसलिए आसन इन आठ अंगों में से केवल एक है। आसनों का अभ्यास शरीर को स्वस्थ बनाता है और दीर्घ एवं निरोगी जीवन की ओर ले जाता है। स्वस्थ शरीर शुद्ध और पवित्र मन का आधार होता है। शुद्ध आत्मा ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रेरित होती है, और इस प्रकार शुद्ध आत्मा वाला साधक आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करता है। ये सभी चरण अंततः मुक्ति की ओर ले जाते हैं।
इस प्रकार, आसन का उद्देश्य केवल शरीर को स्वस्थ रखना नहीं है, बल्कि योग की उच्च अवस्था तक पहुँचने का माध्यम बनना है। अभ्यास से क्या संभव है और क्या अनुभव किया जा सकता है, यह व्यक्ति की क्षमता और उसकी साधना पर निर्भर करता है। योग-साधना आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाती है। ‘आ’ का अर्थ है प्राप्त किए गए सभी तत्वों के साथ और ‘सन’ का अर्थ है उससे आगे जाना। व्यक्ति को प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान और धारणा जैसे सभी चरणों से आगे बढ़कर समाधि की अवस्था प्राप्त करनी होती है। इस प्रक्रिया में अवस्थाएँ होती हैं और सूक्ष्म शरीर एक माध्यम के रूप में आवश्यक होता है। शास्त्र शरीर को धर्म का पालन करने का माध्यम बनाए रखने पर ज़ोर देते हैं। यहाँ धर्म का अर्थ सीमित नहीं है; इसका आशय हिंदू, मुस्लिम या ईसाई धर्म से नहीं है, बल्कि शरीर, मन और बुद्धि की क्षमता के अनुसार ज्ञान की साधना करना है। उच्च अध्ययन और श्रेष्ठ साधना के लिए शारीरिक रूप से स्वस्थ और सुदृढ़ होना आवश्यक है। आसन इसे प्राप्त करने का पहला चरण है, लक्ष्य नहीं। व्यक्ति का शरीर ही ज्ञान की साधना का माध्यम और उपकरण है।
यदि केवल शारीरिक तंदुरुस्ती ही उद्देश्य हो, तो मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाता। भक्ति-योग और ज्ञान-योग के लिए स्वस्थ शरीर एक आवश्यक पूर्वशर्त है। स्वस्थ मन स्वस्थ शरीर में ही निवास करता है। स्वस्थ शरीर एकाग्रता और ध्यान को सरल बनाता है। विज्ञान के इस युग में वैज्ञानिक अनेक प्रकार के प्रयोग करते हैं। ऐसे मौलिक अनुसंधान के लिए उन्हें गहन एकाग्रता और चिंतन की आवश्यकता होती है। ये सभी वैज्ञानिक आधुनिक युग के ऋषि हैं।
प्राचीन काल के ऋषि-मुनि ज्ञान और विज्ञान के महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर एकाग्र होकर अध्ययन और चिंतन करते थे तथा बाद में उन्हें जनसामान्य तक पहुँचाते थे। वेदों में अपार ज्ञान का भंडार है, किंतु आज उन्हें केवल जप या मंत्र के रूप में देखा जाता है। ऋषियों ने एकाग्रता और ध्यान के माध्यम से ज्ञान की उपलब्धि की। वैज्ञानिक भी मानव कल्याण के लिए नए तथ्यों का आविष्कार या खोज करते समय एकाग्रता और चिंतन करते हैं। ऐसी एकाग्रता या चिंतन की क्षमता जन्मजात नहीं होती, बल्कि अभ्यास से अर्जित की जाती है। इसके लिए आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान और धारणा—एकाग्रता को बढ़ाने के साधन हैं। योग-साधना एक प्रकार का प्रशिक्षण है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसका महत्व निरंतर बढ़ता जा रहा है। ध्यान में गहन चिंतन और एकाग्रता ही मुख्य तत्व हैं। एकाग्रता और ध्यान से कार्य की सिद्धि होती है।
आसन का अगला चरण अर्थात् प्राणायाम, स्वास्थ्य को संतुलित करने और मन को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक है। प्राणायाम मन-नियंत्रण की ओर ले जाता है और ऐसा नियंत्रित मन योग-साधना के लिए अनिवार्य होता है। दृढ़, स्थिर और सशक्त बुद्धि व्यक्ति को किसी भी संकट से बाहर निकाल सकती है। मन-नियंत्रण और उसकी शक्ति प्राप्त करने के लिए प्राणायाम और ध्यान मन तथा बुद्धि को प्रशिक्षित करने की आवश्यक प्रक्रियाएँ हैं।
ध्यान एकाग्रता को बढ़ाता है। जो विद्यार्थी ध्यान का अभ्यास करते हैं, वे बेहतर सीखते हैं और अधिक स्मरण रख पाते हैं। इसलिए शिक्षकों को विद्यार्थियों को ध्यान की प्रक्रिया सिखानी चाहिए। प्राचीन काल में गुरुकुलों में विद्यार्थियों को ध्यान करना सिखाया जाता था। आज ध्यान-प्रणाली के शिक्षण को पुनर्जीवित करना आवश्यक है।
किसी भी पेशे या सेवा में ठोस निर्णय लेने के लिए स्वस्थ और दृढ़ मन तथा बुद्धि आवश्यक होती है। यदि कोई व्यक्ति ध्यान का अभ्यास करता है, तो उसे एकाग्र होने, चिंतन करने और विवेकपूर्ण निर्णय लेने में कम समय लगता है। जो लोग महत्वपूर्ण पदों पर कार्य करते हैं, उन्हें उचित और सतर्क निर्णय लेने के लिए ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। एक डॉक्टर को अपने रोगियों का सही निदान करने के लिए स्वस्थ मन और तीक्ष्ण बुद्धि की आवश्यकता होती है। ध्यान का अभ्यास करने वाले डॉक्टर अधिक सफल होते हैं, क्योंकि उनमें सही ज्ञान प्राप्त करने और समय पर सटीक निर्णय लेने की क्षमता होती है।
ध्यान का अभ्यास व्यावहारिक जीवन में भी अत्यंत लाभकारी है। राजनेता अपने देश के लिए निर्णय लेते हैं। यदि उनका मन और बुद्धि मानव-कल्याण पर केंद्रित न हो, तो विनाशकारी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। यदि राजनेता ध्यान का अभ्यास करें, तो समाज की प्रगति संभव है। महात्मा गांधी इसका सर्वोत्तम उदाहरण हैं। उनकी बुद्धि और मन ध्यान एवं प्रार्थना से प्रेरित थे, इसलिए वे सदैव मानव-कल्याण के बारे में सोचते थे। वे सभी के द्वारा आदरणीय हैं, अतः राजनेताओं को उनके उदाहरण का अनुसरण करना चाहिए।
हम एक वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं। मनुष्य अन्य ग्रहों तक पहुँच चुका है। वह सूक्ष्म जीवों और उनके जीवन-चक्र का अध्ययन कर समाधान खोज रहा है। विज्ञान के क्षेत्र में हुई खोजों और आविष्कारों ने हमारे जीवन को सरल बनाया है। किसी भी आविष्कार या खोज के लिए वैज्ञानिकों को एकाग्रता, चिंतन और ध्यान की आवश्यकता होती है। यदि किसी सामान्य वैज्ञानिक को किसी आविष्कार के लिए 10 वर्ष लगते हैं, तो ध्यान का अभ्यास करने वाले वैज्ञानिक को कम समय लग सकता है।
समय और ऊर्जा की बचत के लिए वैज्ञानिकों में ध्यान का अभ्यास विकसित किया जाना चाहिए। योग-अभ्यास से वैज्ञानिक अपने आविष्कारों के अंतिम लक्ष्य तक आसानी से पहुँच सकते हैं। सभी अंतरिक्ष यात्री अत्यंत कठिन प्रशिक्षण से गुजरते हैं, परंतु उनमें से केवल कुछ को ही अंतरिक्ष में जाने और स्वयं को सिद्ध करने का अवसर मिलता है। हमारे समाज में चपरासी से अधिकारी तक, साधारण किसान से विशेषज्ञ कृषिविद् तक, दाई से कुशल डॉक्टर तक—सभी को अपने-अपने पेशे में प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। इस प्रशिक्षण में अंतःकरण का मार्गदर्शन और एकाग्रता शामिल होती है। ध्यान का अभ्यास प्रशिक्षण प्रक्रिया को सरल बना देता है। तब कोई भी दक्षता प्राप्त कर सकता है। ऐसी दक्षता प्राप्त करने के बाद व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में और अधिक प्रगति कर सकता है। ध्यान योग का मूल है और ध्यान ज्ञान की ओर ले जाता है। इससे सभी के लिए ध्यान-प्रशिक्षण की आवश्यकता स्पष्ट होती है।
योग मानव जीवन से गहराई से जुड़ा हुआ है। योग जीवन को अधिक समृद्ध, समुन्नत और सुसंस्कृत बनाता है।