इस पुस्तक में योगी मनोहरजी बताते हैं कि एक समय पूरा विश्व वैदिक अर्थात् ज्ञानपरंपरा का पालन करता था। ‘विद्’ का अर्थ है ज्ञान प्राप्त करना और ‘वैदिक’ का अर्थ है ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार आचरण करना। इसलिए प्राचीन काल में केवल एक ही परंपरा थी—ज्ञानपरंपरा। उस समय न कोई अलग-अलग धर्म थे, न जातियाँ और न ही पंथ। संपूर्ण मानव समाज एक था। बाद में धीरे-धीरे मान्यताएँ बदलती गईं और उन्हीं मान्यताओं के आधार पर विभिन्न धार्मिक पंथ बनते चले गए। आज स्थिति यह है कि विभिन्न धार्मिक पंथों के कारण मनुष्य विभाजित हो गया है। मतभेद और संघर्ष उत्पन्न हो गए हैं। किंतु यदि मानव यह समझ ले कि हमारी मूल परंपरा वैदिक परंपरा है, तो एकता का नया युग आएगा। यही मूल वैदिक परंपरा योगीजी ने इस पुस्तक में समझाई है।
इसके साथ ही यह पुस्तक यह भी स्पष्ट करती है कि कुछ स्थानों पर किस प्रकार भ्रांतियाँ और गलत धारणाएँ फैल रही हैं। इस संसार में केवल एक ही धर्म है—मानव धर्म—और केवल एक ही जाति है—मानव जाति। प्रेम और करुणा ही मानव धर्म है, जिसका उल्लेख गीता में किया गया है। इसी धर्म की व्याख्या इस पुस्तक में की गई है। यह पुस्तक समस्त मानव जाति के लिए है और हिंदी भाषा में उपलब्ध है। भविष्य में यह अंग्रेज़ी और मराठी भाषाओं में भी प्रकाशित की जाएगी।
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