भगवद्गीता वैदिक धर्म का पवित्र ग्रंथ है और यह सभी के लिए है। वास्तव में, गीता मानव के श्रेष्ठ जीवन और आध्यात्मिक उन्नति के लिए मार्गदर्शन प्रदान करती है। किंतु योगिराज हरकरे के अनुसार, व्यास के अर्थ की लंबे समय तक गलत व्याख्या की गई। महात्मा गांधी, माधवाचार्य, डॉ. सुकथंकर जैसे विचारकों ने भगवद्गीता को प्रतीकात्मक दृष्टि से देखा, परंतु यह दृष्टिकोण पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाया। योगिराज मनोहर हरकरे उर्फ काकाजी ने अपने योगिक ज्ञान और अनुभवों को जोड़कर गीता के नैतिक अर्थ को पूर्ण रूप से विकसित किया। उन्होंने योग-साधना की गहन तपस्या के आधार पर यह अद्वितीय ग्रंथ लिखा है।
भगवद्गीता की उनकी व्याख्या :
गीता आधुनिक विज्ञानों का एक खजाना है, जैसे—सापेक्षता का सिद्धांत, क्वांटम सिद्धांत, संभाव्यता का विज्ञान, अंतरिक्ष और समय का विज्ञान तथा जन्म और मृत्यु के शाश्वत नैतिक नियम।
इसमें सामाजिक और व्यक्तिगत मनोविज्ञान भी समाहित है।
योग और परा-अस्तित्व (पराअस्तित्व) के अनुभवों का गहन अध्ययन गीता में प्रामाणिक रूप से वर्णित है।
इसमें जीवन के सभी क्षेत्रों के लिए आचार-संहिता भी निहित है, जो अस्तित्व की उन्नति और मोक्ष के लिए आवश्यक है।
महाभारत का युद्ध वास्तव में प्रवृत्तियों का शाश्वत संग्राम है, जो आत्मसाक्षात्कार की ओर अग्रसर प्रत्येक मानव के अंतःकरण में हर क्षण चलता रहता है।
महाभारत और गीता के पात्र एवं घटनाएँ नैतिक गुण या अवगुण का प्रतीक हैं। योगिराज ने महाभारत के लगभग सभी नामों का विश्लेषण अच्छे या बुरे प्रवृत्तियों के संदर्भ में किया है। उदाहरणार्थ—धृतराष्ट्र का अर्थ है अपने आध्यात्मिक लाभों के प्रति अंधापन। वह दुर्योधन अर्थात् हठी दुष्प्रवृत्ति से प्रभावित है और उसे संजय अर्थात् संतुलित बुद्धि द्वारा मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है।
काकाजी इस पुस्तक के माध्यम से गीता के इस यथार्थ ज्ञान का प्रसार करना चाहते हैं। वे विनम्रतापूर्वक कहते हैं कि वे केवल अभिव्यक्ति का माध्यम हैं। संत ज्ञानेश्वर की कृपा से ही वे गीता का वास्तविक अर्थ समझ पाए। उनका कहना है कि योग-साधना और संत ज्ञानेश्वर की विशेष अनुकंपा के कारण ही गीता पर लेखन उनके लिए संभव हो सका।